फरीदाबाद: बिहार राज्य के सीतामढ़ी क्षेत्र की रहने वाली 33 वर्षीय ज्योत्सना ने नदियों में उगने वाली सिक्की घास को अपने हुनर से न केवल उसे उपयोगी बनाया, बल्कि आर्थिक तरक्की का आधार भी बना लिया है. घास से बनी देवी देवताओं, ऐतिहासिक स्थलों और ज्वैलरी अब हजारों की कीमत में बिक रही है। इसी सिक्की घास की कला को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार ने ज्योत्सना को वर्ष 2014 में राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा है.
ज्योत्सना अब अपनी इस कला पर पीएचडी भी कर रही हैं. उन्होंने पिछले 24 वर्षों में इस कला को देश के विभिन्न हिस्सों में पहचान दिलाने के साथ-साथ अमेरिका, इथोपिया, जर्मनी और दुबई तक पहुंचाने का कार्य किया हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि ज्योत्सना 50 से अधिक महिलाओं को अपने साथ जोड़कर उन्हें भी आत्मनिर्भर बना चुकी हैं. शिल्पकार ज्योत्सना ने बताया कि सिक्की कला राजा जनक के कार्यकाल से चली आ रही है. पुराणों में वर्णित है कि सिक्की कला का उदय सीतामढ़ी से हुआ है. विदेहराज राजा जनक ने अपनी पुत्री वैदेही को विदाई के समय मिथिला की महिलाओं से विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां बनवाकर दी थीं, जिसमें सिक्की कला की पौती, पेटारी, डिब्बी आदि शामिल थी. तभी से इस कला का उद्गम माना जाता है. उन्होंने बताया कि वह सिक्की कला में ही पीएचडी भी कर रही हैं.
ज्योत्सना ने बताया कि सिक्की घास बिहार की बाढ़ वाली नदियों के अलावा नेपाल की नदियों में पाई जाती है. यह कुश की तरह की ही घास होती है जो दिखने में गेहूं के पौधे जैसे लगती है. नदियों के किनारे जमा होने वाले पानी में यह घास उगती है.
अक्टूबर-नवंबर महीने में ही इसकी कटाई होती है। उसे सुखाकर उसके ऊपर की दो परतें निकालकर तीसरी परत को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर गोंद के माध्यम से विभिन्न प्रकार की आकृतियां और ज्वैलरी बनाई जाती है. ज्योत्सना का कहना है कि इस कला को आगे बढ़ाने वाली अपने परिवार की वह पांचवीं पीढ़ी की वंशज है. एक आकृति बनाने में उन्हें डेढ़ से दो महीने का समय लगता है. उनके द्वारा बनाई गई भगवान गणेश, लेटे हुए मुद्रा में भगवान बुद्ध, शंख, पीपल का पत्ता आदि आकृतियां मेले के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन रही है.
साभार: हिन्दुस्थान समाचार