Opinion: भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकार आज निजी संस्थानों के लिए मुनाफे का जरिया बन चुके हैं. प्राइवेट स्कूल सुविधाओं की आड़ में अभिभावकों से मनमाने शुल्क वसूलते हैं. ड्रेस, किताबें, यूनिफॉर्म, कोचिंग…सब कुछ महँगा और अनिवार्य बना दिया गया है. वहीं, प्राइवेट हॉस्पिटल डर और भ्रम का माहौल बनाकर मरीजों से मोटी रकम वसूलते हैं. सामान्य बीमारी को गंभीर बताकर महंगी जांच, दवाइयाँ और भर्ती का दबाव बनाया जाता है. इन संस्थानों के पीछे कथित तौर पर राजनीतिक संरक्षण है, जिस कारण कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती. सबसे अधिक संकट में मध्यम वर्ग पर है, जिसे न सरकारी सेवाओं पर भरोसा है, न प्राइवेट सिस्टम से राहत. यह एक चेतावनी है कि यदि जनता ने अब भी आवाज नहीं उठाई तो शिक्षा और स्वास्थ्य सिर्फ विशेषाधिकार बनकर रह जाएंगे.
भारत एक ऐसा देश है जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य को बुनियादी अधिकार माना जाता है. लेकिन जब यही अधिकार एक व्यापार का रूप ले ले तो आम आदमी की जिंदगी में यह अधिकार बोझ बन जाते हैं. आज के दौर में प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट हॉस्पिटल सुविधाओं के नाम पर ऐसी व्यवस्था खड़ी कर चुके हैं जो आम नागरिक की जेब पर सीधा हमला करती है. यह हमला सिर्फ आर्थिक नहीं, मानसिक और सामाजिक भी है.
शिक्षा या व्यापार?
प्राइवेट स्कूलों की बात करें तो अब ये शिक्षण संस्थान कम और फाइव स्टार होटल ज्यादा लगते हैं. स्कूल में दाखिले के लिए लाखों की डोनेशन, एडमिशन फीस, एनुअल चार्जेस, ड्रेस, किताबें, जूते, बस फीस आदि. हर चीज में अलग-अलग मदों के नाम पर वसूली होती है. किताबें स्कूल के किसी ‘अधिकृत वेंडर’ से ही खरीदनी होती हैं, जिनका मूल्य बाजार दर से दोगुना होता है, क्योंकि उसमें स्कूल का कमीशन जुड़ा होता है. स्कूल यूनिफॉर्म भी उन्हीं से लेनी पड़ती है, जो आम बाजार में मिलती ही नहीं. यह सब इसलिए नहीं कि अभिभावक इन सुविधाओं की मांग करते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि स्कूलों ने इसे ‘अनिवार्य’ बना दिया है. पढ़ाई नाम की चीज अब कक्षा में कम और कोचिंग संस्थानों में ज्यादा होती है. दिलचस्प बात ये है कि उन कोचिंग संस्थानों के मालिक भी कई बार उन्हीं स्कूल संचालकों से जुड़े होते हैं. बच्चा दिनभर स्कूल, फिर कोचिंग, फिर होमवर्क और फिर ट्यूशन. ऐसे में बच्चे के लिए खुद के लिए ना समय, ना सोच, ना बचपन. इन सबका उद्देश्य एक ही होता है – ‘99% लाओ’. जब ये नंबर नहीं आते तो बच्चे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं. अभिभावक दूसरों के बच्चों से तुलना करने लगते हैं और ये पूरी प्रक्रिया मानसिक उत्पीड़न में बदल जाती है.
स्वास्थ्य का नाम, व्यापार का काम अब अगर शिक्षा में ये स्थिति है, तो स्वास्थ्य क्षेत्र उससे भी भयावह है. प्राइवेट हॉस्पिटल्स का ढांचा अब इलाज से ज्यादा ‘कमाई’ पर केंद्रित हो गया है. अस्पताल में घुसते ही ‘पर्ची’ कटती है, फिर तरह-तरह की जाँचें, महंगी दवाइयाँ, आईसीयू और ‘एडवांस पेमेंट’ की माँग और वो भी बिना यह बताए कि मरीज की स्थिति क्या है. सामान्य सर्दी-खांसी या बुखार को भी डॉक्टर ऐसा बताते हैं, मानो जीवन संकट में हो. डर दिखाकर लोगों को लंबी दवाओं और भर्ती की सलाह दी जाती है. मरीज ठीक भी हो जाए, तब भी बिल देखकर परिवार बीमार हो जाता है. जो दवा बाहर 10 रुपए में मिलती है, वही अस्पताल के बिल में 200 से 300 रुपए की होती है. यहाँ तक कि मौत के बाद भी लाश को एक-दो दिन रोककर ‘मोर्चरी चार्जेस’, ‘फ्रीजर चार्जेस’ आदि के नाम पर अंतिम सांस तक पैसा वसूला जाता है. यह एक क्रूर मजाक है उस परिवार के साथ जो पहले ही अपनों को खो चुका होता है.
सरकार की चुप्पी – क्यों?
इस लूट का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह सब किसी को छिपकर नहीं करना पड़ता. सब कुछ खुलेआम होता है. अखबार, सोशल मीडिया, न्यूज चैनल, हर जगह यह मुद्दा उठता है. हर साल प्राइवेट स्कूलों की फीस बढ़ोतरी और हॉस्पिटल बिलों पर शोर होता है, लेकिन हर बार यह शोर धीरे-धीरे दबा दिया जाता है. आखिर ऐसा क्यों? क्योंकि अधिकतर प्राइवेट स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, इन सबके पीछे किसी ना किसी नेता का हाथ होता है. चाहे वह सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का। सिस्टम में बैठे अधिकतर लोग कहीं ना कहीं इस खेल में हिस्सेदार होते हैं. नियम-कानून बनते हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं होता. आरटीई (शिक्षा का अधिकार कानून), सीजीएचएस (स्वास्थ्य सुविधा योजना), नैशनल मेडिकल काउंसिल – ये सब नाम भर हैं, जिनका प्रयोग प्रचार में होता है, न कि आम आदमी को राहत देने में.
मध्यम वर्ग की त्रासदी गरीबों के लिए सरकार कभी-कभी योजनाएँ बना देती है, अमीरों को कोई चिंता नहीं, लेकिन सबसे ज्यादा पिसता है मध्यम वर्ग. न उसे सरकारी स्कूल में भेजना गवारा होता है, न सरकारी अस्पताल में जाना. मजबूरी में वह प्राइवेट विकल्प चुनता है और फिर उसी जाल में फँस जाता है. एक ऐसा जाल जिसमें न कोई नियंत्रण है, न कोई जवाबदेही. मध्यम वर्ग न तो सड़क पर उतरता है, न ही आंदोलन करता है. वह हर महीने अपनी जेब काटकर ईएमआई देता है, स्कूल की फीस चुकाता है, हॉस्पिटल के बिल भरता है. बस यही सोचता है “और कोई रास्ता भी तो नहीं है।”
समाधान की संभावनाएँअगर वास्तव में इस समस्या से निपटना है तो कुछ ठोस कदम उठाने होंगे. निजी संस्थानों की पारदर्शिता, स्कूलों और अस्पतालों को अपने शुल्क और सेवाओं की जानकारी सार्वजनिक रूप से वेबसाइट और नोटिस बोर्ड पर लगानी चाहिए. एक स्वतंत्र नियामक संस्था होनी चाहिए जो फीस और सेवा की गुणवत्ता की निगरानी करे. एक ऐसी प्रणाली जहां आम नागरिक अपनी शिकायत दर्ज कर सके और उसका समाधान समयबद्ध तरीके से हो. यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी राजनीतिक व्यक्ति या उनके परिवार का हित इन संस्थानों से ना जुड़ा हो. जब तक आम जनता एकजुट होकर आवाज नहीं उठाएगी, तब तक यह लूट का सिलसिला चलता रहेगा. शिक्षा और स्वास्थ्य कोई ‘सेवा’ नहीं रह गई है. यह अब एक ‘सर्विस’ है, जिसका मूल्य तय होता है आपकी जेब देखकर. यह स्थिति किसी भी संवेदनशील और लोकतांत्रिक समाज के लिए शर्मनाक है. जब तक हम खुद नहीं जागेंगे, आवाज नहीं उठाएंगे, और सिस्टम से जवाबदेही नहीं माँगेंगे. तब तक यह प्राइवेट सिस्टम हमें ऐसे ही लूटता रहेगा. हमें यह भी समझना होगा कि दिखावे की दौड़ में शामिल होकर हम अपने बच्चों का बचपन, अपने परिवार की शांति और अपने भविष्य की स्थिरता दाँव पर लगा रहे हैं. यह समय है सवाल पूछने का, व्यवस्था को आईना दिखाने का, वरना जेब तो जाएगी ही, आत्मसम्मान भी खो जाएगा.
डॉ सत्यवान सौरभ
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.)
साभार – हिंदुस्थान समाचार
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