पांच राज्यों में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों
के परिणामों का निहितार्थ क्या है? यह ठीक है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जनता ने भाजपा की
नीतियों-कार्यक्रमों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व में भारत
में हो रहे सकारात्मक परिवर्तनों से प्रभावित होकर बहुमत दिया है। परंतु यह आधा सच
है। गांधी परिवार, विशेषकर— राहुल गांधी
और प्रियंका गांधी वाड्रा के बेतुके बयानों से आहत होकर भी जनता कांग्रेस के खिलाफ
मत देने को विवश हुई है।
भले ही बीते एक वर्ष से इस दल की अध्यक्षता
मल्लिकार्जुन खड़गे कर रहे है, परंतु पार्टी की परोक्ष कमान गांधी परिवार के हाथों में ही
है। श्रीमती सोनिया गांधी तो चुप है, परंतु राहुल और प्रियंका पार्टी का मुखर चेहरा बने हुए है।
वर्षों से कांग्रेस में विचारधारा का टोटा है, जिसकी पूर्ति वह घिसे-पीटे और कालबह्य हो चुके वामपंथी
जुमलों से करने का प्रयास करते है। पिछले कई वर्षों से इसके बहुत से प्रमाण देखने
को मिले है। इसका सबसे ताजा उदाहरण— कांग्रेस द्वारा तात्कालीक राजनीतिक लाभ के
लिए भारतीय राजनीति में जाति के भूत को पुन: जीवित करने का प्रयास है।
राहुल-प्रियंका और अन्य कांग्रेसी नेताओं द्वारा इन चुनावों में ‘जितनी आबादी, उतना हक’ नारा बार-बार दोहराया गया।
अभी तक सपा, बसपा, राजद जैसे क्षेत्रीय दल जाति आधारित राजनीति का सहारा लेते
थे। यह पहली बार है कि जब किसी राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस ने इस जिन्न को
बंद बोतल से दोबारा बाहर निकालने की कोशिश है। अबतक जातीय राजनीति के सूरमा वी.पी.
सिंह थे, जिन्होंने बतौर प्रधानमंत्री (1989-1990) अपने खिसकते जनाधार को बचाने हेतु मंडल आयोग
की धूल फांक रही सिफारिशों को देश में लागू कर दिया। इस निर्णय के खिलाफ देशभर में
हजारों-लाखों छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन किया, तो कई छात्रों ने सरेआम आत्मदाह कर लिया। इस घटना के बाद
वीपी सिंह के राजनीतिक विरासत का कोई भी नाम लेने वाला नहीं बचा है।
जाति निश्चय ही भारतीय समाज की एक सच्चाई है।
परंतु यह अब लगातार घिसता हुआ सिक्का बन गया है। आधुनिक शिक्षा, सर्वांगीण अवसर, तकनीकी दौर और बाजारवाद के युग में जाति की भूमिका गौण हो
गई है। आज के आकांक्षावान युवा जातीय पहचान से ऊपर उठकर देखने की क्षमता रखते है।
इसलिए राहुल-प्रियंका के बार-बार दोहराने कि ‘सत्ता में आने पर जातिगत-जनगणना
कराकर आबादी के हिसाब से हक दिलाएंगे’— उसका उलटा प्रभाव हुआ। राजस्थान और
छत्तीसगढ़ के क्रमश: निवर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल की योजनाओं
के असंख्य लाभार्थी भी कांग्रेस से छिटक गए।
राहुल-प्रियंका ने केवल जाति के नाम देश को
बांटने का प्रयास नहीं किया। इससे पहले गत वर्ष गुजरात विधानसभा चुनाव और अपनी
‘भारत जोड़ो’ यात्रा के समय राहुल ने आदिवासियों को देश का ‘असली मालिक’ बताकर कहा
था, “आपसे (आदिवासियों से) देश लिया गया था।“ यदि
राहुल के लिए आदिवासी देश के ‘असली मालिक’ हैं, तो शेष लोग कौन है? छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश रूपी आदिवासी बाहुल्य राज्य में भाजपा
की निर्णायक विजय ने राहुल की विभाजनकारी ‘आदिवासी बनाम शेष हिंदू समाज’ राजनीति
को भी ध्वस्त कर दिया।
वास्तव में, राहुल-प्रियंका का चिंतन भारत-हिंदू विरोधी वामपंथ से
प्रेरित होने के साथ ब्रितानी औपनिवेशिक उपक्रम (‘बांटो-राज करो’ सहित) से भी जनित
है, जिसका अंतिम उद्देश्य भारत को एक राष्ट्र के रूप में नकारना
और उसे 1947 की भांति कई टुकड़ों में खंडित करना है। इसका
प्रमाण— राहुल के उन विदेशी विश्वविद्यालयों में दिए वक्तव्यों में मिल जाता है, जिसमें उन्होंने भारतीय लोकतंत्र और देश की मौलिक
बहुलतावादी संस्कृति को अपमानित करते हुए कहा था, “भारत एक राष्ट्र नहीं, अपितु राज्यों का एक संघ है’. सच तो यह है कि भारत सदियों
से सांस्कृतिक तौर पर एक राष्ट्र है। सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत
सिंह के शासनकाल के साथ 1857 की
क्रांति तक भारत में राष्ट्रीयता और भावनात्मक एकता अक्षुण्ण थी। इसे कालांतर में
पहले ब्रितानियों ने थॉमस बैबिंगटन मैकॉले, सर सैयद अहमद खां और मैक्स आर्थर मैकॉलीफ आदि के संयोजन से
अपने औपनिवेशिक हितों के लिए विकृत किया, तो फिर उनके असंख्य मानसपुत्रों ने वामपंथियों के सहयोग से
संकीर्ण ‘सेकुलरवादी‘ चश्मा पहनकर इस विमर्श को आगे बढ़ाया।
यह विडंबना है कि राहुल गांधी मार्क्स-मैकॉले
एजेंडे को तब आगे बढ़ा रहे है, जब गांधीजी ने अपनी ‘हिंद स्वराज्य‘ (1909) पुस्तक में लिखा था”. अंग्रेजों ने सिखाया है कि आप
एक राष्ट्र नहीं थे और एक-राष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों वर्ष लगेंगे। यह बात
बिल्कुल निराधार है। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे, तब भी हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन-सहन एक था। भेद तो अंग्रेजों ने बाद में हमारे
बीच पैदा किए, दो अंग्रेज जितने एक नहीं, उतने हम भारतीय एक थे और एक है।”
बात केवल यही तक सीमित नहीं है। स्वतंत्र भारत
के सार्वजनिक विमर्श को भी राहुल गांधी ने सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है। एक-दूसरे के
धुर वैचारिक-राजनीतिक विरोधी होने के बाद भी पंडित जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी
वाजपेयी ने सीमा नहीं लांघी। इंदिरा गांधी ने, बतौर प्रधानमंत्री, वीर सावरकर और संघ के पूर्व सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर
(गुरुजी) को सराहा। परंतु राहुल इस मामले में अपवाद है और ‘विशेषाधिकार की भावना’
रूपी रोग से ग्रस्त है। राहुल द्वारा एक प्रेसवार्ता में अचानक पहुंचकर अपनी सरकार
द्वारा पारित अध्यादेश की प्रति को फाड़ना, भारतीय आर्थिकी को सुदृढ़ता देने वाले उद्यमियों
(अंबानी-अडाणी सहित) को तिरस्कृत करना, प्रधानमंत्री मोदी से घृणा के कारण ‘मोदी-उपनाम‘ के सभी लोगों को चोर बताना और उनके लिए ‘पनौती’, ‘डंडे मारने’ जैसे शब्दों का उपयोग करना— इसका
प्रमाण है।
सच तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी जनता को अपने पक्ष में मत देने के लिए
प्रोत्साहित तो करती है, परंतु राहुल-प्रियंका
के मूर्खतापूर्ण वक्तव्य कांग्रेस सरकार के लाभार्थियों को भाजपा के पक्ष में
मतदान करने के लिए विवश कर देते है।
लेखक- बलबीर पुंज