Opinion: प्रत्येक शब्द का अर्थ होता है. अर्थ न हो तो शब्द का कोई मतलब नहीं. पतंजलि ने महाभाष्य में यह बात दोहराई है. शब्द और अर्थ मां और पुत्र जैसे हैं. शब्द की कोख में अर्थ होता है. जो शब्द का अर्थ नहीं जानते उनके लिए शब्द का कोई मतलब नहीं है. भारत में अध्यात्म सम्बंधी विपुल साहित्य रचा गया है. इन शब्दों के अर्थ बड़े मूल्यवान हैं. शब्दों के विशिष्ट ढंग से बने वाक्य मंत्र होते हैं. मंत्रों के भी अर्थ होते हैं. लेकिन उनके प्रभाव शब्दार्थ से ज्यादा व्यापक होते हैं. शब्दों का अपना संसार है. पृथ्वी पर जितनी वस्तुएं, पेड़, पौधे, जीव, जंतु, मनुष्य विद्यमान हैं, प्रत्येक रूप के लिए शब्द हैं या नाम हैं. कविता भी शब्दों का मधुर संयोजन होती है.
आश्चर्य की बात नहीं है कि सौंदर्य का वर्णन कविता में ज्यादा सुंदर प्रकट होता है. वैदिक काव्य स्तुतियां हैं. वैदिक मंत्रों को कविता कहा जाता है। ऋग्वेद के काव्य के लिए ऋचा शब्द आया है. एक मंत्र में कहा गया है, ”ऋचो अक्षरे परमे व्योमन यस्मिन देवा अधि विश्वे ने शेधु-ऋचाएं परम व्योम में रहती हैं. यहीं सभी देवता भी रहते हैं.” जो यह बात नहीं जानता वह वैदिक शब्दों का क्या अर्थ निकलेगा? लेकिन जो यह बात जानता है वह उसी तत्व में मिल जाता है. ज्ञान के लिए अज्ञात क्षेत्र का बोध असंभव नहीं है. सृष्टि का एक भाग जान लिया गया है. एक भाग जानने की सूची में है. लेकिन इससे भी बड़ा भाग अज्ञेय है. उसे जाना नहीं जा सकता. अज्ञात का भी ज्ञान होता है कि यह भाग अज्ञात है. ऋषि का संदेश सुस्पष्ट है कि पूर्ण ज्ञानी उसी विराट का अविभाज्य हो जाता है.
बात सही है। किसी शब्द या वाक्य को याद करना आसान है. उस शब्द के अर्थ के लिए गहराई में उतरना कठिन है. अनेक कथावाचक श्रद्धालु श्रोताओं को गीत संगीत से प्रभावित करते हैं. लोकमंगल से जुड़े तमाम उदाहरण देते हैं. पौराणिक कथाओं का भी उल्लेख करते हैं. लेकिन श्रोताओं का आत्मरूपांतरण नहीं होता. कथावाचन साधारण जमावड़ा नहीं होता. कथाएं प्रेरक होती हैं. कथा और गल्प में अंतर होता है. आखिरकार इस बात का मूल कारण क्या है कि कथावाचक पूरी युक्ति और परिश्रम के साथ श्रोताओं का संबोधन करते हैं? श्रोता भी दत्त चित्त होकर सुनते हुए दिखाई पड़ते हैं. भक्ति कथाएं प्रेम से भरी पूरी हैं. श्रोता कुछ समय तक इनका आनंद लेते हैं. लेकिन इसका ठोस प्रभाव नहीं पड़ता. वैदिक ऋषि को किसी समय जनसामान्य की ऐसी ही समझ का सामना करना पड़ा होगा. तभी उसने यह मंत्र बताया कि देवता परम व्योम में रहते हैं. यहीं ऋचाएं भी रहती हैं. जो व्यक्ति यह बात नहीं समझता, ऋचा उसके लिए क्या कर सकती हैं? शब्द का बोला जाना और उसे सुना जाना, सुनते ही मस्तिष्क के सामने उसका अर्थ खुलना अल्पकाल में घटित होता है. अर्थ नहीं खुला तो शब्द निरर्थक हो जाता है.
मंत्र पढ़ना पर्याप्त नहीं है. मंत्र का अर्थ खोलना ही श्रेयस्कर है. इस मंत्र में ऋषि ने सावधान कर दिया है कि ऋचा स्वयं में कुछ नहीं कर सकती, कि अर्थ महत्वपूर्ण है. इस मंत्र की महत्ता इस बात से आंकी जा सकती है कि ऋग्वेद (1.164) में व अथर्ववेद (9.15.18) में और श्वेताश्वतर उपनिषद में भी दोहराया गया है. प्रेम और ज्ञान की प्राप्ति किसी प्रतिनिधि के माध्यम से संभव नहीं है. भक्ति और ज्ञान साधना में भी कड़ी शर्त है. भक्ति स्वयं ही इष्ट तक पहुंचाती है. किराए के सहायक द्वारा भक्ति सिद्ध नहीं होती. ज्ञान प्राप्ति भी स्वयं की तप साधना से संभव होती है.
पूर्वजों ने ज्ञान प्राप्ति के लिए तमाम साधनाएं की थीं. लोकमंगल के लिए उन्होंने तमाम त्याग और समर्पण किए थे. ढेर सारा ज्ञान हमारे सांस्कृतिक ग्रंथों में भरा पड़ा है. ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर आधुनिक काल तक सतत प्रवाही उत्कृष्ट ज्ञान परंपरा है. हजारों किलोमीटर दूर आकाश में बैठे सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति और शुक्र पूर्वजों की जिज्ञासा का विषय थे. उन्होंने प्रकृति सृष्टि के सभी प्रपंचों का अध्ययन किया था. उनके अनुभव के गीत वैदिक साहित्य में संकलित हैं. वैदिक कविताएं बार-बार दोहराई जाती हैं. लेकिन ऋषि सावधान करता है कि जो यह बात नहीं जानता वह वैदिक मंत्रों से कुछ भी हासिल नहीं कर पाएगा. यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति ईत तद विदुस्त इमे समासते. शब्द ज्ञान अर्थ के अभाव में व्यर्थ रहता है.
अर्थ शब्द के द्वार खोलता है. सत्य अर्थ प्रकट हो जाता है. इसका अनुभव विशेष बोध पैदा करता है. सभी भाषाएं लाखों शब्दों से भरी पूरी हैं. इनमें रूपों के लिए शब्द हैं. इनमें प्रेम प्रकट करने के भी शब्द हैं. प्रेम व्यक्ति से भी हो सकता है और समष्टि से भी. प्रेम की व्याख्या शब्दों के द्वारा संभव नहीं है. आध्यात्मिक चेतना के लिए भी शब्द हैं. क्रोध प्रकट करने के लिए भी शब्द हैं. ध्वनि के लिए तो शब्द हैं लेकिन अलग-अलग ध्वनियों के लिए शब्दों का अभाव है. थाली या चाय की प्याली गिरते ही विशेष ध्वनि होती है. इस ध्वनि को क्या नाम दें. कोयल बोलती है. उसकी बोली मधुर है हम कहते हैं कि कोयल गीत गा रही है. कौन जाने कि वह गा ही रही है या किसी चिड़ीमार को गलियां बक रही है. आध्यात्मिक क्षेत्र में अनेक शब्द हैं. संन्यास एक शब्द है. इस शब्द को सुनते ही सुंदर भगवा वस्त्र पहने किसी संन्यासी का स्मरण होता है. संन्यासी का अर्थ खुल गया. लेकिन संन्यास की व्याख्या नहीं. मुक्ति और मोक्ष का अर्थ भी नहीं खुलता.
सामान्यतः माना जाता है कि मोक्ष का अर्थ सभी अभिलाषाओं का खत्म हो जाना है। निष्काम जीवन गीता की स्थापना है. मुक्ति शब्द का प्रयोग भी बहुत होता है. लेकिन इसका भी अर्थ अस्पष्ट है. साधु, संत, ऋषि, मुनि आदि अनेक शब्दों के अर्थ स्पष्ट नहीं हैं. जो साधनारत हैं, वे साधु हो सकते हैं. जो मंत्र शक्ति को देखते हैं, मंत्र रचते हैं वे ऋषि हैं. जो साधना के शीर्ष पर हैं, वे संत हैं. सबका उद्देश्य लोक का अभ्युदय व स्वयं का निःश्रेयस है. उनके अर्थ जानने के लिए आत्म अनुभव की जरूरत होती है. मनुष्य जीवन बड़ा रहस्यपूर्ण है. इसका सरलीकरण संभव नहीं है. अनेक भारतीय तत्वज्ञानियों ने इसीलिए संसार को दुखमय कहा है. जीवन दुखमय है. यह एक दृष्टि या विचार है. जीवन आनंदमय है. यह एक अलग और स्वस्थ विचार है. आप्त वचन मार्गदर्शी होते हैं. अनुभवी ही सही बात बता सकते हैं कि सत्य क्या है? अनुभूत ज्ञान से भिन्न किसी भी व्यक्ति का हितसाधन मंत्र अनुष्ठान से ही नहीं हो सकता. ऋग्वेद के ऋषि की घोषणा सही और मजेदार है कि जो तत्वज्ञानी नहीं हैं उनके लिए ऋचा कुछ नहीं कर सकती.
हृदयनारायण दीक्षित
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं.)
साभार – हिंदुस्थान समाचार
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